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ग़ज़ल
ख़ुत्बा तरग़ीब-ए-हलाकत का रवा है ऐ दोस्त
शे'र कहने की सज़ा है मुझे मा'लूम न था
सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
ख़ुद-रौ सब्ज़े छेड़ रहे हैं जंगल के क़ानून के राग
कब तक बाग़ में पढ़वाएँगे ख़ुत्बा सर्व-ओ-समन अपना
मुहिब आरफ़ी
ग़ज़ल
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
रू-ब-रू है हाथ बाँधे ख़िल्क़त-ए-बे-चशम-ओ-गोश
और है वा'इज़ ग़लत मिम्बर ग़लत ख़ुत्बा ग़लत
सरमद सहबाई
ग़ज़ल
ज़र्रों की ख़ुत्बा-ख़्वानियाँ बल्कि ख़ुदा-बयानीयाँ
उफ़ तिरी लन-तरानियाँ ख़ाक-ए-हमा-नियाज़ में
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
कैसे ख़ुश-तबा हैं इस शहर-ए-दिल-आज़ार के लोग
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाती है तब पूछते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ख़ुबाँ के बाग़ में रौनक़ हुए तो किस तरह याराँ
न दोना है न मरवा है न सौसन है न लाला है