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ग़ज़ल
नज़ीर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
अभी रौशन हैं कुछ नक़्श-ओ-निगार-ए-ख़ुद-फ़रेबी
महल उस की रिफ़ाक़त का खंडर क्यूँ लग रहा है
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
भला फ़ुर्सत किसे है जो यहाँ रिश्तों को पहचाने
ये दौर-ए-ख़ुद-फ़रेबी आश्नाई छीन लेता है