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ग़ज़ल
रात के सन्नाटे में 'क़ासिम' कान लगे दरवाज़े को
और गली में आहिस्ता से बढ़ता शोर खड़ाऊँ का
क़ासिम हयात
ग़ज़ल
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
फिर तो इस बे-नाम सफ़र में कुछ भी न अपने पास रहा
तेरी सम्त चला हूँ जब तक सम्तों का एहसास रहा
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
बात तब आशिक़-गरी की मैं जहाँ में फ़ाश की