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ग़ज़ल
तलब के मौसम गँवाए मैं ने कमाल-ए-ग़म से धुआँ धुआँ तुम
शिकायतें ये कड़े महाज़ों से लौट आने के बाद होंगी
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
इक पल झूटी तस्कीं पा कर सारी रात गँवाए कौन
फ़ज़्ल ताबिश
ग़ज़ल
क्या ऐसी मंज़िलों के लिए नक़्द-ए-जाँ गंवाएँ
जो ख़ुद हमारे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा के दम से हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
क्यूँ रो रो कर नैन गंवाएँ रोने से क्या होता है
सो जा ऐ दिल तू भी सो जा सारा जग ही सोता है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
यूँ तो हम ने आप की ख़ातिर होश गँवाए जोग लिया
लेकिन अब हम को समझाना आप के बस की बात नहीं
अख़्तर आज़ाद
ग़ज़ल
इस ज़िंदगी के ग़म का क्या है आज है कल हो न हो
फिर क्यों गवाएँ वक़्त हम कुछ ख़्वाब बोने के लिए