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ग़ज़ल
चश्म-ए-मस्त-ए-यार का हम-चश्म लो पैदा हुआ
देखना अब पोस्त खींचा जाएगा बादाम का
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
देख कर कहते हैं सब अबरू ओ चश्म-ए-मस्त-ए-यार
क्यूँकि मेहराब-ए-हरम के नीचे मय-ख़ाना रहा
हस्सामुद्दीन हैदर नामी
ग़ज़ल
गर्दिश-ए-चश्म-ए-मस्त से दिल को लुभा गया कोई
अक़्ल पे मुझ को नाज़ था वो भी मिटा गया कोई
जौहर निज़ामी
ग़ज़ल
दिखा कर मुझ को चश्म-ए-मस्त मस्ताना बना डाला
पिला कर आज साक़ी तू ने दीवाना बना डाला
आफ़ाक़ बनारसी
ग़ज़ल
उन की चश्म-ए-मस्त में पोशीदा इक मय-ख़ाना था
जाम था साग़र था मय थी शीशा था पैमाना था
वक़ार बिजनोरी
ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त-ए-साक़ी का सलाम आया तो क्या होगा
अगर फिर तर्क-ए-तौबा का पयाम आया तो क्या होगा
दर्शन सिंह
ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त-ए-साक़ी का इशारा पा के पीता हूँ
हुदूद-ए-होश की मंज़िल से बाहर जा के पीता हूँ
अमीर देहलवी
ग़ज़ल
चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी-ए-मदहोश की रहती है याद
साथ-साथ अपने लिए फिरते हैं इक मय-ख़ाना हम
फ़हीम गोरखपुरी
ग़ज़ल
चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी-ए-मख़मूर है मय-कश-नवाज़
भर न जाए उम्र-ए-दो-रोज़ा का पैमाना कहीं