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ग़ज़ल
तू मुश्ताक़ों से अपने चश्म-पोशी रोज़ करता है
तिरे दीदार की दौलत भी क़ारूँ का ख़ज़ाना है
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
सियह-चश्मी हुई ज़ाहिर ललन की चश्म-पोशी में
छुपाती हैं अपस मुश्ताक़ सूँ अपना जमाल अँखियाँ
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
दाद देना तुम हमारी चश्म-पोशी की हमें
राह में जो गुम थे उन को रहनुमा हम ने कहा
राजेन्द्र नाथ रहबर
ग़ज़ल
सज़ा है उन के तईं ये दर्द थोड़ा सा कि करती थीं
हमेशा चश्म-पोशी 'आबरू' का देख हाल अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
मिरा दिल लेते ही कर चश्म-पोशी मुझ से मुँह फेरा
नज़र आता नहीं कुछ मुझ को दिलबर से निबाह अपना
वली उज़लत
ग़ज़ल
कैफ़ सा अब हो गया पैदा ग़म-ए-‘अय्याम में
क्या तिलिस्म-ए-सरख़ुशी है दौर-ए-सुब्ह-ओ-शाम में