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ग़ज़ल
वो चिंगारी ख़स-ओ-ख़ाशाक से किस तरह दब जाए
जिसे हक़ ने किया हो नीस्ताँ के वास्ते पैदा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इस अंदेशे से ज़ब्त-ए-आह मैं करता रहूँ कब तक
कि मुग़-ज़ादे न ले जाएँ तिरी क़िस्मत की चिंगारी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बुझा तो ख़ुद में इक चिंगारी भी बाक़ी नहीं रक्खी
उसे तारा बनाने में अंधेरा हो गया था मैं