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ग़ज़ल
न जाने 'शाद' उन का क़र्ज़ मैं कैसे चुकाऊँगा
मिरे भी नाम कुछ लम्हे हिसाबों से निकल आए
ख़ुशबीर सिंह शाद
ग़ज़ल
मैं तेरा क़र्ज़ चुकाऊँगा वस्ल की रुत में
तू अपने अश्कों का रखना हिसाब मेरे लिए
शहबाज़ नदीम ज़ियाई
ग़ज़ल
सब के हुक़ूक़ कुछ न कुछ हैं क़र्ज़ मेरी ज़ात पर
कैसे चुकाऊँगा वहाँ इतने उधार हो गए
एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
चाहे बिक जाऊँ चुकाऊँगा मगर सब का हिसाब
मुझ पे क़र्ज़ इमरोज़ का है मुझ पे हक़ फ़र्दा का है
महशर बदायुनी
ग़ज़ल
इन पुतलियों का क़र्ज़ चुकाता हूँ क्या करूँ
बस दिल से दिल मिलाता हूँ जब देखता हूँ मैं
शाहीन अब्बास
ग़ज़ल
मुद्दतों तर्क-ए-तमन्ना पे लहू रोया है
इश्क़ का क़र्ज़ चुकाया है बहुत दिन हम ने
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
झगड़ों में अहल-ए-दीं के न 'हाली' पड़ें बस आप
क़िस्सा हुज़ूर से ये चुकाया न जाएगा
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
गुल-बदनों को तकते रहना बातें करना ख़ुशबू की
निगह-ए-गुल का क़र्ज़ चुकाना हम को अच्छा लगता था
कृष्ण अदीब
ग़ज़ल
जनाब क़र्ज़ चुकाया है यूँ अनासिर का
कि ज़िंदगी इन्ही चारों में बाँट दी मैं ने