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ग़ज़ल
शब-ए-वस्ल-ए-सनम का ख़ात्मा बिल-ख़ैर हो यारब
न आँखों पर कहीं फिर जाए चूना सुब्ह-ए-फ़ुर्क़त का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
चूना-गच दीवारों में झाँको तो ख़राबे पाओगे
मेरी तरह कितने ही यहाँ सुक़रात मिरे अहबाब में हैं
फ़ारिग़ बुख़ारी
ग़ज़ल
दिया मैं पान उसे इक रेख़्ता पढ़ कर लगा कहने
ये ईंटी खूई का कत्था है और कंकर का चूना है
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
बे-रुख़ी की घर की दीवारों पे थी चूना-कली
ज़र्रा ज़र्रा अज्नबिय्यत की फ़ज़ा में क़ैद था
शाहीन बद्र
ग़ज़ल
नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है