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ग़ज़ल
कहीं ज़ुल्मतों में घिर कर है तलाश-ए-दश्त-ए-रहबर
कहीं जगमगा उठी हैं मिरे नक़्श-ए-पा से राहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
मेरी दुनिया जगमगा उट्ठी किसी के नूर से
मेरे गर्दूं पर मिरा माह-ए-तमाम आ ही गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
राख होते जा रहे हैं माह-ओ-साल-ए-ज़िंदगानी
जगमगा उठ्ठा जहाँ हम साथ पल दो पल रहे हैं