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ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं फ़क़ीर आस्ताँ हूँ मिरी लाज रख ख़ुदारा
ये जबीन-ए-शौक़ मेरी तिरे दर पे झुक गई है
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे
जबीन-ए-दहर पर छटकेगी अफ़्शाँ हम नहीं होंगे
अब्दुल मजीद सालिक
ग़ज़ल
दर-ए-यार तू भी 'अजीब है है 'अजीब तेरा ख़याल भी
रही ख़म जबीन-ए-नियाज़ भी मुझे बे-नियाज़ भी कर गया
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो
यार की ख़ाक-ए-आस्ताँ ताज-ए-सर-ए-नियाज़ हो
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
अगर मेरी जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती
तो फिर महशूर उन के साथ अपनी ज़िंदगी होती
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
जबीन-ए-क़ैस बनी संग-ए-आस्ताना-ए-इश्क़
जुनूँ है ख़ेमा-ए-लैला सियाह-ख़ाना-ए-इश्क़