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ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
ये मता-ए-रंज-ओ-ग़म और शब-ए-हिज्र का ये 'आलम'
था कहाँ मिरा मुक़द्दर तिरी बे-रुख़ी से पहले
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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ये मता-ए-रंज-ओ-ग़म और शब-ए-हिज्र का ये 'आलम'
था कहाँ मिरा मुक़द्दर तिरी बे-रुख़ी से पहले