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ग़ज़ल
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
किसी को देखता इतना नहीं हक़ीक़त में
'ज़फ़र' मैं अपनी हक़ीक़त कहूँ तो किस से कहूँ
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
कहीं तो हैं जो मिरे ख़्वाब देखते हैं 'ज़फ़र'
कोई तो हैं जिन्हें प्यारे नहीं समझता हूँ
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के
गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज-ओ-अलम कह नहीं सकते