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ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तिरे ग़म की उम्र-ए-दराज़ में कई इंक़लाब हुए मगर
वही तूल-ए-शाम-ए-'फ़िराक़' है वही इंतिज़ार-ए-सहर भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कौन सुकून दे सका ग़म-ज़दगान-ए-इश्क़ को
भीगती रातें भी 'फ़िराक़' आग लगा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
'फ़िराक़' इस गर्दिश-ए-अय्याम से कब काम निकला है
सहर होने को भी हम रात कट जाना समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तीरा-बख़्ती नहीं जाती दिल-ए-सोज़ाँ की 'फ़िराक़'
शम्अ के सर पे वही आज धुआँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
शब कट गई फ़ुर्क़त की देखा न 'फ़िराक़' आख़िर
तूल-ए-ग़म-ए-हिज्राँ भी बे-कार नज़र आया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया