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ग़ज़ल
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
रही हैं बस ज़ेर-ए-दर्स तेरे किताबें पिछले निसाब वाली
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
पेश करता है छुपा कर ग़म-ए-पिन्हाँ लेकिन
उस की तहरीर का हर ज़ेर-ओ-ज़बर चीख़ता है
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
रक्खी मिरे ज़मीर ने आब-ए-अना की लाज
मैं ज़ेर-ए-बार-ए-ख़्वाजा-ओ-सुल्ताँ न था कभी