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ग़ज़ल
मिरी दास्ताँ का उरूज था तिरी नर्म पलकों की छाँव में
मिरे साथ था तुझे जागना तिरी आँख कैसे झपक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
मिरा सोना भी क्या है जागना क्या इन्तिज़ार-ए-शब
पड़ा रहता है ये बिस्तर में ख़ुद को भूल जाता हूँ