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ग़ज़ल
तिरे कानों में गूँजी क्या मिरी आवाज़ जान-ए-मन
मैं रोता हूँ तबीअ'त है बहुत ना-साज़ जान-ए-मन
अदनान हामिद
ग़ज़ल
कभी इस से तुम्हें देखूँ कभी उस से तुम्हें देखूँ
मिली हैं इस लिए आँखें मुझे ऐ जान-ए-मन दो दो
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना