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ग़ज़ल
वो लड़ कर भी सो जाए तो उस का माथा चूमूँ मैं
उस से मोहब्बत एक तरफ़ है उस से झगड़ा एक तरफ़
वरुन आनन्द
ग़ज़ल
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
मिरा दिल फेर दो मुझ से ये झगड़ा हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
हर एक खाने से पहले झगड़ा खिलाएगा कौन पहले लुक़्मा
हमारे घर में तो ऐसी बातों से ही लड़ाई पड़ी रहेगी