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ग़ज़ल
ज़ाहिद-ए-इश्क़ से जुदा मज़हब-ए-इश्क़ है मिरा
झुकना दर-ए-नक़ीब पर मेरे लिए है बेहतरी
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
बहुत हस्सास है 'ज़रयाब' को झुकना नहीं आता
क़बा फूलों की भी हो तो क़बा से चोट लगती है
हाजरा नूर ज़रयाब
ग़ज़ल
ख़ुद्दारी-ए-गेसू का है उस रुख़ पे ये आलम
झुकना जो पड़ा उन को तो बल खाए हुए हैं