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ग़ज़ल
दूसरी जानिब इक बादल ने बढ़ कर ढाँप लिया था चाँद
और आँखों में डूब रहा था दिल का सितारा एक तरफ़
अख़्तर शुमार
ग़ज़ल
उसे देखा तो चेहरा ढाँप लोगे अपने हाथों से
हम अपने साथियों में 'राम' ऐसा फ़र्द रखते हैं
राम रियाज़
ग़ज़ल
दिल में जो कुछ है ज़बाँ का ज़ाइक़ा बनता नहीं
लफ़्ज़ चेहरा ढाँप लेते हैं मआनी देख कर
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
नज़्अ' में हश्र के वा'दे ने ये तस्कीं बख़्शी
चैन से सो रहे मुँह ढाँप के मरने वाले
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
ऐ ख़ंदा-ए-गुलशन ये है अंजाम-ए-शब-ए-ऐश
गुल रोते हैं न मुँह ढाँप के दामान-ए-सहर से