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ग़ज़ल
आज के सारे हक़ाएक़ वाहिमों की ज़द में हैं
ढालना है तुझ को ख़्वाबों से कोई पैकर तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
न है फ़रियाद होंटों पर न आँखों में कोई आँसू
ज़माने से मिला जो ग़म उसे गीतों में ढाला है
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
हमारे दिल-जज़ीरे पर उतरता ही नहीं कोई
कहें किस से कि इस मिट्टी ने किस साँचे में ढलना है
जलील ’आली’
ग़ज़ल
अभी तक याद है कल की शब-ए-ग़म और तन्हाई
फिर इस पर चाँद का ढलना 'क़मर' आहिस्ता आहिस्ता