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ग़ज़ल
बदली वो हवा गुज़रा वो समाँ वो राह नहीं वो लोग नहीं
तफ़रीह कहाँ और सैर कुजा घर से भी निकलना छोड़ दिया
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
दीवार क़फ़स की हो कि घर की मुझे क्या फ़र्क़
तफ़रीह के सामाँ हों मयस्सर तो सज़ा क्या
शारिक़ कैफ़ी
ग़ज़ल
कौन कहाँ पर झूटा निकला क्या बतलाते हम
दुनिया की तफ़रीह थी इस में हमें ख़सारा था
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
तिरा जल्वा तो क्या तू ख़ुद भी तफ़रीह-ए-नज़र होता
मिरी आँखों ने अब तक भीक माँगी ही नहीं दिल से
एहसान दानिश
ग़ज़ल
हिज्र में दम घुटने को है कूच है तफ़रीह का
साँस रुकने को है हिचकी चंद बार आने को है