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ग़ज़ल
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
बाँके मुग़ल बचे न करें ख़ाना-जंगियाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बस यूँही दर्द का अब्र शे'रों की बारिश में ढलता गया
वारिसान-ए-सुख़न! कोई तमग़ा नहीं है कमाना मुझे
फ़रीहा नक़वी
ग़ज़ल
न सी चश्म-ए-तमा ख़्वान-ए-फ़लक पर ख़ाम-दसती से
कि जाम-ए-ख़ून दे है हर सहर ये अपने मेहमाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
उस ने उठाया हम पे तमाँचा हम ने हटाया मुँह को जो आह
शोख़ ने हम को उस दिन से फिर नाज़ दिखाना छोड़ दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
जब इंसानों को अशरफ़ का मिला तमग़ा तो ये कहिए
पहाड़ों और दरख़्तों और हैवानों पे क्या गुज़री