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ग़ज़ल
तलाश-ए-रिज़्क़ में जिस ने ज़रा अच्छा बुरा समझा
तो फिर उस ने हक़ीक़त में ख़ुदा को भी ख़ुदा समझा
इमरान अली ख़ाँ इमरान
ग़ज़ल
तलाश-ए-रिज़्क़ में घर से नहीं निकलता अगर
तो करना पड़ता मयस्सर पे इंहिसार मुझे
रुख़्सार नाज़िमाबादी
ग़ज़ल
तलाश-ए-रिज़्क़ में उड़ते हैं चार-सू लेकिन
परिंद अपनी निगाहों में जाल रखते हैं
राही हमीदी चाँदपुरी
ग़ज़ल
तलाश-ए-रिज़्क़ में अक्सर सियाने गाँव के लड़के
हमारे शहर में रिक्शा चलाने रोज़ आते हैं