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ग़ज़ल
झूट है सब तारीख़ हमेशा अपने को दोहराती है
अच्छा मेरा ख़्वाब-ए-जवानी थोड़ा सा दोहराए तो
अंदलीब शादानी
ग़ज़ल
हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी
हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ है मर्द-ए-ख़ुदा के साथ
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
कुछ सुन के जो मैं चुप हूँ तो तुम कहते हो बोलो
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता