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ग़ज़ल
वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ
कि गर्मी दफ़ा करता है गुलाब आहिस्ता-आहिस्ता
वली दकनी
ग़ज़ल
मैं कैसे मान लूँ कि इश्क़ बस इक बार होता है
तुझे जितनी दफ़ा देखूँ मुझे हर बार होता है
भास्कर शुक्ला
ग़ज़ल
दफ़ा कर 'इश्क़ का चर्चा कहीं तू भी न बह जाए
अभी तो बाँध के रक्खें हैं सब सैलाब आँखों में
सावन शुक्ला
ग़ज़ल
पहले भी ये सब मनाज़िर रोकते थे इस दफ़ा
ऐसा क्या देखा कि तुझ से और ग़ाफ़िल हो गया