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ग़ज़ल
मर्द-ए-दरवेश का सरमाया है आज़ादी ओ मर्ग
है किसी और की ख़ातिर ये निसाब-ए-ज़र-ओ-सीम
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ज़कात-ए-हुस्न दे ऐ जल्वा-ए-बीनिश कि मेहर-आसा
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हो कासा गदाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मिरी आवारगी भी इक करिश्मा है ज़माने में
हर इक दरवेश ने मुझ को दुआ-ए-ख़ैर ही दी है