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ग़ज़ल
बरकतें जो उठ गई हैं आज दस्तर-ख़्वान से
मेज़बाँ डरने लगे हैं आमद-ए-मेहमान से
अतीक़ मुज़फ़्फ़रपुरी
ग़ज़ल
शिकम-सेरी ने दस्तर-ख़्वान बिछवाए हैं लोगों से
मज़ाक़-ए-ज़ाइक़ा समझो ज़बानें घटती बढ़ती हैं
कलीम हैदर शरर
ग़ज़ल
अब तो अपने पास हैं केवल बिछड़े यारों की तस्वीरें
ख़ाली दस्तर-ख़्वान पे जैसे हों पकवानों की तस्वीरें