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ग़ज़ल
ख़्वाब सरीखा छुटपन सावन प्याज़ की रोटी देसी घी
अम्मा के सिल-बट्टे वाली धनिए लहसन की चटनी
शारिक़ क़मर
ग़ज़ल
हो सके तो तुम बचा लो अब भी देसी नस्ल को
वर्ना पीछे सिर्फ़ ''शेवर'' मुर्ग़ियाँ रह जाएँगी
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
मरीज़-ए-'इश्क़ हो मिर्गी हो जूता है 'इलाज इन का
तुम इन दोनों की ये देसी दवाई देखते जाओ
किशन लाल ख़न्दां देहलवी
ग़ज़ल
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता