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ग़ज़ल
दौलत-ए-दीदार हस्ब-ए-मुद्दआ हासिल हुई
मिल गई जिस शख़्स को तक़दीर से इक्सीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
गो हूँ मुफ़लिस पर हूँ अपनी तीरा-बख़्ती से नमी
मेरे घर में दौलत-ए-सूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है