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ग़ज़ल
नंगी हो कर नाच रही है भूकी रूहों की मजबूरी
झाँक सको तो झाँक के देखो जिस्मों के अम्बार के पीछे
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है