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ग़ज़ल
ये इश्क़ होता है बिन सिखाए कि उस का कोई निसाब कैसा
हर इक है इस राह का मुसाफ़िर फ़क़ीर कैसा नवाब कैसा
अक़्सा फ़ैज़
ग़ज़ल
बदन को जाना है पहली बार आज रूह की महफ़िल-ए-तरब में
तो ऐसा लगता है जैसे कोई नवाब तय्यार हो रहा है
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
सर्द आहों ने मिरे ज़ख़्मों को आबाद किया
दिल की चोटों ने जो रह रह के तुझे याद किया
नवाब मोअज़्ज़म जाह शजीअ
ग़ज़ल
ये कोई नज़्र तो नहीं निगाह दिल नवाज़ की
खिला हुआ जो दिल में इक गुलाब देखता हूँ मैं
माहिर अब्दुल हई
ग़ज़ल
सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से
लहू उतरा है तिरी आँखों में ख़ूँ-ख़्वारी से
नवाब मोहम्मद यार ख़ाँ अमीर
ग़ज़ल
घटाएँ छाई हैं साग़र उठा ले जिस का जी चाहे
ये मय-ख़ाना है क़िस्मत आज़मा ले जिस का जी चाहे