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ग़ज़ल
सुनते हैं अब उन गलियों में फूल शरारे खिलते हैं
ख़ून की होली खेल रही हैं रंग नहाती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
'नासिर' रूह में घुल जाती है मस्त महक माधूरी की
जब सखियों के संग वो नारी नदिया बीच नहाती है
नासिर शहज़ाद
ग़ज़ल
तिरी यादों के दरिया में हर इक शब ये नहाती हैं
बदन ग़ज़लों का मेरी ऐसे ही गोरा नहीं होता