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ग़ज़ल
ख़याल कर कर भटक रहा हूँ नज़र जो आए तेवर हैं बाँके
बनाओ बनता नहीं है 'नाजी' जो उस सजन को लगाऊँ छतियाँ
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
मैं अपना जान ओ दिल क़ुर्बां करूँ ऊस पर सेती 'नाजी'
जिसे देखें सीं हुए ईद रमज़ानी है ये लड़का
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
कू-ए-जानाँ का पता दे कर मैं पहुँचा ख़ुल्द में
मुझ से कुछ रिज़वाँ ने बहस-ए-नाजी-ओ-नारी न की
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
न छोड़ूँ उस लब-ए-इरफ़ाँ को 'नाजी' और लुटा दूँ सब
मिले गर मुझ को मुल्क-ए-ख़ुसरवी और ताज-ए-काऊसी
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
कहाँ मुमकिन है 'नाजी' सा कि तक़्वा और सलाह आवे
निगाह-ए-मस्त-ए-ख़ूबाँ वो नहीं लेता ख़राबाती
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
न पूछो जल्वा-फ़रमा जब हुए वो नाज़-ओ-शोख़ी से
हुआ क्या हाल दीवानों का हुशयारों पे क्या गुज़री
लतीफ़ नाज़ी
ग़ज़ल
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
चाहे तो करे राहिब-ए-बुत-ख़ाना को नाजी