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ग़ज़ल
जहाँ शो'लों से फूलों के हसीं चेहरे झुलसते हैं
जहाँ काँटे पनपते हैं वो मेरा गुलसिताँ क्यों हो
जयकृष्ण चौधरी हबीब
ग़ज़ल
पनपते हैं यहाँ बूटे न खिलती हैं यहाँ कलियाँ
ख़िज़ाँ-ख़ुर्दा चमन सर-सर-ज़दा है गुल्सिताँ मेरा
मासूम शर्क़ी
ग़ज़ल
बहुत सी ख़्वाहिशों को मैं पनपने ही नहीं देता
मगर उन की निगाहों में सोयम्बर देख लेता हूँ