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ग़ज़ल
पेश-ए-नज़र है पस्त-ओ-बुलंद-ए-रह-ए-जुनूँ
हम बे-ख़ुदों से क़िस्सा-ए-अर्ज़-ओ-समा न पूछ
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
बुलंद ओ पस्त दुनिया फ़ैसला करने नहीं देती
कि गिरना चाहता हूँ या सँभलना चाहता हूँ मैं
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
फ़र्श से मुतमइन नहीं पस्त है ना-पसंद है
अर्श बहुत बुलंद है ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
ये नज़र नज़र तबाही ये क़दम क़दम मुसीबत
कहीं पस्त हो न जाए मिरा अज़्म-ए-फ़ातेहाना
नाज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
जो मा'बूदान-ए-बातिल की जहाँ में सरवरी होती
मुक़ाबिल हैदरी के पस्त क्यूँ कर मरहबी होती
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल
तजल्ली गर तिरी पस्त ओ बुलंद उन को न दिखलाती
फ़लक यूँ चर्ख़ क्यूँ खाता ज़मीं क्यूँ फ़र्श हो जाती