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ग़ज़ल
बड़े नाज़ुक से जज़्बों से मोहब्बत मैं ने पाली थी
फिर अपने क़ीमती लफ़्ज़ों की उस में जान डाली थी
मुनज़्ज़ा सहर
ग़ज़ल
तुझे पा कर ये जाना इश्क़ में सारी ख़ुशी पाली
तुझे खो कर ये समझा इस में ग़म खाना भी होता है
ख़ालिद कोटी
ग़ज़ल
अब कोई हुज्जत नहीं इक़रार को इंकार से
इश्क़ ने पाली फ़राग़त हुस्न की सरकार से
मर्ग़ूब असर फ़ातमी
ग़ज़ल
जब कि पर्वाज़-ए-तख़य्युल ने भी सूरत पाली
कितना बे-मा'नी सा अब तख़्त-ए-सुलैमाँ निकला
मर्ग़ूब असर फ़ातमी
ग़ज़ल
पीले पत्ते सूखी शाख़ों पर भी तो अक्सर चमका चाँद
मुझ से मिलने कभी न आई तेरी नाज़ की पाली रात