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ग़ज़ल
ख़ुदा-लगती कहे ऐ 'शाद' जो इस पैर के हक़ में
यक़ीं समझो दुआ-गो भी ये देरीना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तख़य्युल हर्फ़ में ढल कर उभर आता है काग़ज़ पर
सरापा सोचता हूँ मैं ग़ज़ल चेहरा बनाती है
साबिर शाह साबिर
ग़ज़ल
पैर मुड़े उस का तो गिरता हूँ मैं ये कैसा रिश्ता है
चोट किसी को लग जाती है कोई चोटिल हो जाता है
संदीप ठाकुर
ग़ज़ल
फिर उजली कुर्सी पर बैठें मुल्ज़िम का इंसाफ़ करें
पहले मुंसिफ़ गंगा-जल से अपनी निय्यत साफ़ करें