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ग़ज़ल
शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
ज़िंदगी आ जा कभी हम बे-घरों के दरमियाँ
बशीर फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
सहाब-ए-फ़सल-ए-गुल है बर्ग-ए-आवारा नहीं है वो
चलो माना किसी की आँख का तारा नहीं है वो
अयाज़ आज़मी
ग़ज़ल
हवा-ए-फ़स्ल-ए-गुल के साथ बर्क़-ए-'शो'ला'-बार आई
नशेमन में लगी है आग गुलशन में बहार आई
शोला करारवी
ग़ज़ल
ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया
जिस बयाबाँ पर नज़र डाली गुलिस्ताँ कर दिया
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
फ़स्ल-ए-गुल में नईं बघूले उठते वीरानों के बीच
ख़ाक दीवानों की वज्दी है बयाबानों के बीच