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ग़ज़ल
अब तो 'सरवर' 'इश्क़ ने आज़ाद ईमाँ कर दिया
लाख बहकाया करे फ़र्क़-ए-हक़-ओ-बातिल मुझे
राज कुमारी सूरज कला सरवर
ग़ज़ल
अगर कुछ काम आती इस्तिलाह-ए-साग़र-ओ-मीना
तो मेरी तिश्नगी ने मुझ को बहकाया नहीं होता
क़ैसर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हक़ीक़त को अजब अंदाज़ से झुठलाया जाता है
ज़माने को ख़ुदा के नाम पर बहकाया जाता है
ओम प्रकाश लाग़र
ग़ज़ल
कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल कब बहकेगा मय-ख़ाना
कब सुब्ह-ए-सुख़न होगी कब शाम-ए-नज़र होगी