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ग़ज़ल
हर तरफ़ फैलते बढ़ते हुए ये ज़ीस्त के हाथ
बहर-ए-ज़ुल्मात में एक कूज़ा-ए-जाँ है अब के
रज़ी रज़ीउद्दीन
ग़ज़ल
बहर-ए-ज़ुल्मात-ए-जुनूँ में भी निकल आई है राह
इश्क़ के हाथ में मूसा का असा हो जैसे