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ग़ज़ल
जहान-ए-ख़ैर-ओ-शर से उठ के क्या जाने कहाँ जाते
कोई जन्नत अगर होती तो फ़रज़ाने कहाँ जाते
सय्यद मंज़र हसन दसनवी
ग़ज़ल
अंदोह-ए-बेश-ओ-कम न ग़म-ए-ख़ैर-ओ-शर में है
राज़-ए-हयात वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र में है
शिव दयाल सहाब
ग़ज़ल
तंज़ीम-ए-दहर की तो सही ख़ैर-ओ-शर के साथ
लेकिन ख़ता-ओ-सहव लगा कर बशर के साथ
इफ़्तिख़ार अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
फ़रार मिल न सका हब्स-ए-जिस्म-ओ-जाँ से कि हम
तिलिस्म-ख़ाना-ए-तकरार-ए-ख़ैर-ओ-शर में रहे
सहर अंसारी
ग़ज़ल
बुझा सकेगी न मुझ को हवा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
मैं ताक़-ए-मा-हसल-ए-ख़ैर-ओ-शर में रौशन हूँ