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ग़ज़ल
ज़ीस्त से उम्मीद वाबस्ता है उन के क़ुर्ब की
वर्ना इस बार-ए-अमानत को उठा सकता है कौन
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
ग़ज़ल
उठाना हो सुबुक आदम पे जब बार-ए-अमानत का
कहाँ से फिर कोई इस के लिए बार-ए-गिराँ ढूँढे