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ग़ज़ल
शकर-ख़्वाबी से बिल-आख़िर मुझे बेदार होना था
कि अपनी ज़ात से इक दिन मुझे दो-चार होना था
नज़ीर आज़ाद
ग़ज़ल
बिल-आख़िर जिस्म-ओ-जाँ से ख़ू-ए-आसाइश निकाली है
बड़ी मुश्किल से घर में अपनी गुंजाइश निकाली है