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ग़ज़ल
एक रुख़्सार पे देखा है वो तिल हम ने भी
हो समरक़ंद मुक़ाबिल कि बुख़ारा कम है
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
उसी फ़य्याज़ी का साया है मिरे लफ़्ज़ों पर
जिस ने बख़्शा है समरक़ंद ओ बुख़ारा तिरे नाम
ज़िया फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
ख़ुदा गर मुझ गदा को सल्तनत बख़्शे तो मैं यारो
ब-ख़ाल-ए-हिंदुअश बख़्शम समरक़ंद-ओ-बुख़ारा रा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं