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ग़ज़ल
क्या न चाहा कि बना ले मह-ए-कनआँ को ग़ुलाम
एक बुढ़िया ने भी अफ़्सोस कि पैसा न हुआ
रशीद कौसर फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
मिरी बस्ती में इक बुढ़िया है जो सच-मुच की डाइन है
वो खा जाती है बच्चों को पकड़ कर लोग कहते हैं
फैज़ुल अमीन फ़ैज़
ग़ज़ल
इन दिनों हज़रत-ए-यूसुफ़ की वो ना-क़दरी है
नहीं बुढ़िया भी ख़रीदार बुरी मुश्किल है