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ग़ज़ल
ख़िज़ाँ के दोश पे है फ़स्ल-ए-गुल का रख़्त अभी
कि बर्ग-ओ-बार से ख़ाली है हर दरख़्त अभी
जाफ़र बलूच
ग़ज़ल
मक़्तल में जब किसी के भी काँधे पे सर न था
जो सर-बुरीदा शख़्स था हम-सर लगा मुझे
इकराम-उल-हक़ सरशार
ग़ज़ल
ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
नोक-ए-सिनाँ पे सर नहीं देखा बहुत दिनों से