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ग़ज़ल
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बुर्ज-ए-''अमल'' में ''चांस'' के सूरज की कर गिरफ़्त
सड़कें हैं ''ज़ाइचा'' तिरा ये क़ुमक़ुमे नुजूम
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
मिल बिठाना है फ़लक मंज़ूर किस दिल-ख़्वाह का
बुर्ज-ए-मीज़ाँ में नहीं बे-वज्ह आना माह का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
किया है दाग़ ने क्यों उस को मंज़िल-ए-ख़ुर्शीद
हमारा दिल है ये कुछ बुर्ज-ए-आफ़्ताब नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
दयार-ए-शाम न बुर्ज-ए-सहर में रौशन हूँ
मैं एक 'उम्र से अपने ही घर में रौशन हूँ
शहबाज़ नदीम ज़ियाई
ग़ज़ल
फिर भटकता फिर रहा है कोई बुर्ज-ए-दिल के पास
किस को ऐ चश्म-ए-सितारा-याब वापस कर दिया
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
बुर्ज-ए-शही से देखना ऐसे फ़िशार-ए-वक़्त में
ख़ाक-ब-सर ग़ज़ल-ब-लब कौन गदा है रक़्स में
रज़ी अख़्तर शौक़
ग़ज़ल
ये माना पर्दा-दारी भी बहुत पुर-लुत्फ़ होती है
बुरा क्या है मोहब्बत का अगर इज़हार हो जाए