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ग़ज़ल
मिरी हस्ती ज़माने के मिटाए से नहीं मिटती
अज़ल से मैं निशान-ए-बे-निशानी ले के आया हूँ
सिराजुद्दीन ज़फ़र
ग़ज़ल
निशान-ए-बे-निशानी मिट नहीं सकता क़यामत तक
ये नक़्श-ए-हक़ जफ़ा-ए-दहर से बातिल नहीं होता
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
हमारी बे-निशानी भी निशाँ का हुक्म रखती है
हमें दुनिया मिटाएगी मगर होंगे नुमायाँ हम
शाहिद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मिटते मिटते वक़्त के हाथों मुझे भी आख़िरश
बे-निशानी का निशाँ होना ही था सो हो गया
रिज़वान अहमद राज़
ग़ज़ल
टूटी फूटी क़ब्र भी कर दो बराबर शौक़ से
ये भी अपनी बे-निशानी का निशाँ हो जाएगा
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
है निशाँ मेरा भी शायद शश-जिहात-ए-दहर में
ये गुमाँ मुझ को ख़ुद अपनी बे-निशानी से हुआ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
हमें वो राह बतलाई है ख़िज़्र-ए-इ'श्क़ ने 'ऐशी'
निशान-ए-रफ़्तगाँ पैदा है जिस में बे-निशानी से