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ग़ज़ल
दहक़ाँ की तरह दाना ज़मीन में न बो अबस
बौना वही जो तुख़्म-ए-अमल दिल में बोइए
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
उठा लेता है अपनी एड़ियाँ जब साथ चलता है
वो बौना किस क़दर मेरे क़द-ओ-क़ामत से जलता है
तनवीर सिप्रा
ग़ज़ल
कौन है उस माह का जो गरम-ए-नज़्ज़ारा नहीं
चश्मा-ए-ख़ुर्शीद भी अब चश्म-ए-बीना हो गया
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
ख़स्ता-हाली से जो बौना नज़र आता था तुम्हें
वक़्त जब आया तो फिर कितना क़द-आवर ठहरा
अज़हर ग़ौरी नदवी
ग़ज़ल
समर तक हाथ न पहुँचे तो बौना ख़ूब रोता है
फलों का दान करता है क़द-आवर कुछ नहीं कहता